आत्मा की पवित्रता हेतु किया जाने वाला यज्ञ ही वास्तविक यज्ञ होता है :- गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि
||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 08-NOV-2023
|| अजमेर || गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया की उत्तराध्यन सूत्र के 25 वे अध्ययन का नाम है यज्ञ। इस अध्ययन में सच्चे यज्ञ का स्वरूप बताया गया है।इसमें वाराणसी नगरी में रहने वाले दो ब्राह्मण भाइयों का वर्णन आता है। जय घोष को एक दृश्य को देखकर वैराग्य भाव जागृत होता है। उसने देखा एक मेंढक को खाने के लिए उसके पीछे सांप है। और सांप को खाने के लिए उसके पीछे एक कुरर नाम का पक्षी है। इस दृश्य से चिंतन चला कि मेरे पीछे भी इसी प्रकार मृत्यु लगी है, क्या मैं भी इस संसार से खाली हाथ ही चला जाऊंगा। तब एक संत का सहयोग मिलता है उनसे धर्म चर्चा करके वह उनके पास संयम जीवन को स्वीकार कर लेते हैं। मास मासखमण की तपस्या द्वारा अपने आप को भावित करते हैं।विचरण करते-करते एक बार वाराणसी पधारते हैं। वहां पर विजय घोष एक यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। तब अपने संसार पक्षीय भाई को प्रतिबोध देने के लिए आहार के लिए जयघोष मुनि पधारते हैं तब जय घोष मुनि विजयघोष को समझाते हैं कि तुम जो यज्ञ कर रहे हो वह वास्तविक यज्ञ नहीं है।वास्तविक यज्ञ तो आत्मा की पवित्रता का होता है।द्रव्य यज्ञ की अपेक्षा भी भाव यज्ञ की ही विशेषता होती है।तुम ब्राह्मण हो, मगर तुमने अभी ब्राह्मण शब्द की परिभाषा को ही नहीं समझा किसी भी जीव का हनन नहीं करने वाला ही ब्राह्मण होता है। जो शांत दांत सरल और ब्रह्मचारी आदि उत्तम गुणों से युक्त होता है, वह ब्राह्मण होता है।ज्ञान से मुनि तप से तापस और ब्रह्मचर्य के पालन से व्यक्ति ब्राह्मण होता है। अपने शुभ अशुभ कर्मों से ही व्यक्ति ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य व शुद्र होता है। जो पांच महाव्रतों का पालन कर अपनी आत्मा का कल्याण करता है वही सच्चा यज्ञ करता है।भोगी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है और अभोगी व्यक्ति संसार सागर को पार हो जाता है। इस प्रकार जय घोष मुनि के समझाने पर विजयघोष भी संयम जीवन को स्वीकार करते हैं और अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं।
26वें अध्ययन का नाम समाचारी है। एक साधु को किस प्रकार आचरण करना चाहिए,यह वर्णन इस अध्ययन में है। इस टाइम टेबल की संज्ञा भी दी जाती है। यह समाचारी ही सभी दुखों का नाश करने वाली और संसार सागर से तिराने वाली होती है।इसे गृहस्त जीवन में अपनाना भी बहुत आवश्यक है। समाचारी 10 प्रकार की बताई गई है। उपासरा से बाहर जाते समय आवश्यही कहना ,वापस आते समय निसही बोलना ,यानी बोलकर आना-जाना, बड़ों से पूछ कर कार्य करना, अपने लिए लाए आहार पानी या वस्तु को दूसरे को प्रति लाभित करना,बड़ों के अनुसार कार्य करना,गलती होने पर क्षमा याचना करना, बड़ों की बात को आदर के साथ स्वीकार करना, बड़ों के सम्मान को रखना, और उनसे ज्ञान रूपी लक्ष्मी पाने को सावधान रहना, इस समाचारी को गृहस्थ भी अपने घर में लागू कर सकता है। यानी घर से जाते समय बोलकर जाना, वापस आने पर सूचित करना, बड़ों से पूछ कर कार्य करना, आदि इन सबसे बड़ों के मन में छोटों के प्रति एक स्थान निर्मित होता है और गृहस्त जीवन भी शांति व खुशहाली को प्राप्त कर सकता है।
27वें अध्ययन में दुष्ट बेल की उपमा द्वारा दुष्ट शिष्य के बारे में बताया है कि जैसे दुष्ट बेल अपनी दुष्टता के कारण स्वयं भी परेशान होता है और अपने मालिक को भी परेशान करता है।उसी प्रकार दुष्ट आचरण से शिष्य स्वयं भी परेशान होकर गुरु को भी परेशान करता है।ऐसा शिष्य संघ से निष्कासन के योग्य माना जाता है ।अतः अविनीतता को छोड़कर विनय को सदा शिष्य जीवन में स्वीकार करें।
उतराध्ययन सूत्र का मूल पाठ पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने फरमाया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
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