देवों ने दिया वर्धमान को महावीर नाम :- गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि
||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 10-NOV-2023
|| अजमेर || संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि तीर्थंकर प्रभु महावीर का जीवन मंगलमय है।उनका जन्म ही इतना मंगलकारी होता है की एक क्षण के लिए तीनों लोकों के चराचर जीव उस समय शांति व समाधि का अनुभव करते हैं।प्रकृति भी सूचित करती है कि है तीन लोक के जीवों, तुम्हें शांति समाधि और सुकून देने वाला एक शास्ता आ गया है। जिनके जन्म पर ही इतनी शांति हो जाए तो फिर उनके कर्मों के द्वारा तो जगत में कितनी शांति हुई होगी, यह अनुमान ही लगाया जा सकता है।तीर्थंकर भगवान अनंत बली होते हैं।शकेंद्र की शंका के समाधान के लिए बाल भगवान ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे कोमेरु पर्वत की शिला पर दबा के ही कंपायमान कर दिया। तीर्थंकर भगवान के बल के बारे में कहा जाता है कि 2000 केसरी सिंह का बल एक अष्टापद पक्षी में,10 लाख अष्टपद पक्षी का बल एक बलदेव में, दो बलदेवों का बल एक वासुदेव में,दो वासुदेवों का बल एक चक्रवर्ती में, एक करोड़ चक्रवर्ती का बल एक देव में,एक करोड़ देवों का बल एक इंद्र मेंहोता है।ऐसे अनेक इंद्र मिलकर भी भगवान की कनिष्का उंगली को भी नहीं हिला सकते हैं। ऐसे अनंत बल के स्वामी तीर्थंकर भगवान होते हैं। एक बार शकेेंद्र महाराज द्वारा भगवान की प्रशंसा सुनकर एक देव के मन में शंका उत्पन्न हुई,वह भगवान की परीक्षा लेने आया। सर्प, दानव का रूप बनाकर उसने भगवान को डराने का प्रयास किया। मगर बालक वर्धमान ने उन्हें परास्त कर दिया।तब देवों ने उनकी वीरता को देखकर उन्हें महावीर कहकर पुकारा। तभी से भगवान को महावीर नाम से जाना जाता है।
गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने उत्तराध्यन सूत्र का विवेचन करते हुए फरमाया कि तीसवे अध्ययन का नाम तपोमार्ग गति। 28 वे अध्ययन में बताए गए मोक्ष के मार्ग तप का यहां पर विस्तार से वर्णन किया गया है। जो तत्काल पवित्र करें उसे तप कहा जाता है।तप में मान सम्मान आदि को पाने की भावना नहीं होनी चाहिए। तप में कोई स्वार्थ या चाहना भी नहीं हो। तप केवल कर्मो की निर्जरा के लिए ही करना चाहिए। इच्छाओं का निरोध करना भी तप कहलाता है। तप के दो भेद बताए हैं बाह्य और अभयंतर।बाह्य तप से भी अभ्यंतर तप में कर्मों की निर्जरा ज्यादा होती है।
31 वे अध्ययन का नाम है चरण विधि।मोक्ष मार्ग में बढ़ने के लिए किस प्रकार का आचरण करना।इस मार्ग में आगे बढ़ने की विधि इस अध्ययन में दी है। इसमें एक प्रकार का असंयम ,उसको छोड़ने को कहा है। दो प्रकार के बंधन राग और द्वेष से मुक्त होने को कहा है ।30 महा मोहनिय कर्मबंध के कारण,जैसे दीक्षा लेने वाले को अंतराय देना, उसका मजाक उड़ाना, संघ में भेद डालना,उसकी निंदा करना,यह सब महा मोहनिय कर्मबंध के कारण है। इनका त्याग करना।और गुरुदेव के आगे पीछे अविनय से चलना, खड़ा होना, बैठना आदि 33 प्रकार की आशातना से बचने की प्रेरणा प्रदान की है।इसमें 33 बोलो के माध्यम से साधक को मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने की सुंदर विधि बताई गई है।इस विधि का आचरण करके हम भी अपने कर्मों का क्षय करके चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। उत्तराध्यन सूत्र का मूल वचन पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने किया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
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