कर्म बंध से पहले सावधान और कर्म उदय पर समतावान बने :- गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि

||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 11-NOV-2023 || अजमेर || संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि आप सचमुच बहुत-बहुत भाग्यशाली है, जो आपको भगवान महावीर की अंतिम वाणी को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। प्यारी सी चर्चा चल रही थी कर्म बलवान नहीं बल्कि आत्मा बलवान होती है। ऐसे ही कर्मों पर विजय प्राप्त करने वाले प्रभु महावीर की जीवन गाथाओं का सुनने का प्रयास कर रहे हैं कि माता-पिता ने योग्य अवस्था जानकर बालक वर्धमान को गुरुकुल में अध्ययन के लिए भेजा। मगर वहां पर गुरुजी ब्राह्मण वेश में आए शकेंद्र महाराज की शंका का समाधान नहीं कर पाए और उन सभी शंकाओं का छोटी सी अवस्था में बालक वर्धमान के द्वारा समाधान कर दिया गया। इतना अपार ज्ञान होते हुए भी उन्होंने गुरु जी के प्रति विनय का ही भाव रखा। मगर आजकल आपके घरों में विनय का भाव कमजोर होता जा रहा है। बड़े खड़े रहते हैं और उनके सामने छोटा आसन, सोफे, कुर्सी आदि पर बैठे रहते हैं। आज घरों में जो भी विकृतियों बढ़ रही है उसमें एक बहुत बड़ा कारण विनय का अभाव भी है। गुरुजी बालक वर्धमान को माता-पिता के पास वापस लेकर आते हैं कि आपका पुत्र तो महान ज्ञानवान है इसको पढ़ाने की पात्रता तो मेरे पास भी नहीं है। घर पर आने के बाद एक बार उद्यान में घास में चलती हुई माता से वर्धमान बोले,आप घास पर चलती हो तो मुझे लगता है जैसे आप मेरे पीठ पर चल रही हो।उनकी पीठ पर देखा तो पीठ पर चलने के निशान नजर आए। यानी जीवों के प्रति इतनी गहरी अनुकंपा थी कि उनका दर्द भी वर्धमान स्वयं अनुभव करते थे। हम उनके जीवन से शिक्षा लेने का प्रयास करें। गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि उत्तराध्यन सूत्र के 32वें अध्ययन का नाम है प्रमाद स्थान ।साधना में किया गया थोड़ा सा प्रमाद भी बहुत हानिकारक होता है। पांच इंद्रियों का दुरुपयोग करने वाला बहुत हानि को प्राप्त करता है ।सुनने की आसक्ति के कारण संगीत की लहरियो में मगन हिरण शिकारियों द्वारा पकड़ लिया जाता है ।पतंग रूप की आसक्ति के कारण दीपक कि लो में जल जाता है। सांप औषधि की गंध से बिल से बाहर आ जाता है और पकड़ा जाता है। रस की आसक्ति में मछलियां कांटे में फंस जाती है।स्पर्श की आसक्ति से नदी में उतरा भैंसा मगरमच्छ द्वारा पकड़ लिया जाता है।साधक को पांचो इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। 33वें अध्ययन का नाम है कर्म प्रकृति। जो आत्मा को भटकाए और गलत मार्ग में ले जाए वह कर्म कहलाते हैं।हमारी पुण्यवानी का उपयोग हमें कर्मों की निर्जरा में करना चाहिए। कर्म करने से पहले सावधान रहे और जब कभी कर्मों का उदय काल आए तब उस समय समतावान बन जाए। समता से आए हुए कर्मों को सहन करने से उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है।धर्म साधना द्वारा कर्मों के गहरे प्रभाव को हल्का भी किया जा सकता है।धर्मी व्यक्ति दुखी क्यों? वह पापी सुखी क्यों?इसका कारण है कि धर्मी व्यक्ति के अभी कर्मों का उदय काल है। उसके कर्म का कर्ज चुकता हो रहा है। मगर पापी व्यक्ति अभी मौज करके कर्मों का पिटारा बढ़ा रहा है।समय आने पर उसे यह कर्म ब्याज सहित चुकाना पड़ेगा।अतः हमें कर्मबंध के समय सावधानी रखने और उदय में समता रखने की जो प्यारी सी प्रेरणा मिल रही है,उसको जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे,तो सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा। धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।

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