सम्यक पराक्रम करने वाला व्यक्ति ही अपने मूल लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है :- गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि

||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 09-NOV-2023 || अजमेर || संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि आत्मा का मूल लक्ष्य है शाश्वत सुख को प्राप्त करना, और शाश्वत सुख संयम द्वारा मोक्ष मार्ग में चलने से ही प्राप्त होता है।यह पथ वीतराग प्रभु का पथ है।प्रभु स्वयं इस पथ पर चले हैं और फिर यह पथ दिखलाया है।अतः यह सामान्य मार्ग नहीं बहुत विशिष्ट मार्ग है। मोक्ष मे जाने के चार मार्ग है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। में शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूं ।अपने आत्म स्वरूप के वास्तविक ज्ञान को ही ज्ञान माना गया है। वीतराग भगवान और उनकी वाणी के प्रति श्रद्धा को दर्शन कहा है। अनाचारणीय का त्याग करके,आचरणीय को स्वीकार करना यह चारित्र कहलाता है। और इच्छाओं का निरोध करना तप है। सम्यक दर्शन को ही केवल ज्ञान की जननी, व मोक्ष का मूल बताया है। कहा गया है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता,और ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र ग्रहण किए बगैर मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्ति के लिए भाव चरित्र आना तो आवश्यक माना गया है। सम्यक दर्शन को रीड की हड्डी के समान बताया गया है इस अध्ययन में धर्म रूचि, बीज रुचि, सूत्र रुचि आदि सम्यक दर्शन की 10 प्रकार की रुचिया बताई गई है। सम्यक दर्शन के आठ अंग बताते हुए जीव को सम्यक दर्शन में मजबूत रहने की प्रेरणा प्रदान की गई है। 29 में अध्ययन का नाम सम्यक पराक्रम है।यहां पर श्रम परिश्रम शब्द नहीं देकर के पराक्रम शब्द दिया है। क्योंकि आने वाले संकटों वह बाधाओ के बावजूद भी आगे बढ़ते जाना यही पराक्रम होता है। इसके 73 बोल दिए गए हैं संवेग का अर्थ बताते हुए मोक्ष मार्ग की ओर तीव्र वेग से बढ़ने की प्रेरणा दी है।धर्म श्रद्धा वाला व्यक्ति संसार के साधनों के प्रति उदासीन रहता है ।गुरु और साधर्मिक की सेवा करने वाले को उत्तम गुणों की प्राप्ति होती है ।आत्म निंदा करने वाला मृगावती के समान केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान से युक्त आत्मा अगर किसी कारण से संसार में भटक भी जाए तो पुन:निमित पाकर जागृत हो जाती है।इन 73 बोल के अनुसार सम्यक पराक्रम करने वाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। और ऐसे पावन साधना के सूत्र देने वाले मंगलमय प्रभु महावीर और उनके जीवन गाथा में सुन रहे थे कि शकेंद्र महाराज की आज्ञा से हरिणगमेशी देव त्रिशला रानी के गर्भ में देवानंदा के गर्भ को रखकर अदला-बदली कर देता है। क्योंकि यह नियम होता है कि तीर्थंकर भगवान का जन्म क्षत्रिय कुल में ही होता है। गर्भ में ही माता के कष्ट को जानकर भगवान प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक दीक्षा नहीं लूंगा। चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन भगवान का जन्म होता है। जिसे मनाने 64 इंद्र 56 कुमारिया व देव परिवार आते हैं। इन सब जिनवाणी और जिनवाणी के प्रसंगों को सुनकर जीवन परिवर्तन का प्रयास करेंगे, तो सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा। उत्तराध्यन सूत्र का मूल वाचन पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने किया। धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।

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