अच्छी गति में जाने के लिए मन,वचन और काया की वक्रता का त्याग आवश्गुयक -- गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि

||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 13-OCT-2023 || अजमेर || संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि महारासा ने फरमाया कि पाप का परिणाम अत्यंत भयंकर होता है।18 पापों में आठवां पाप माया है। हमें इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। गुरुदेव एक प्रसंग फरमाते थे की एक संन्यासी किसी दुकान पर पहुंचे।हर डिब्बे के बारे में पूछ रहे थे कि इसमें क्या है?एक डिब्बे के बारे में पूछा,वह खाली था तो दुकानदार ने कह दिया इसमें राम-राम है। सन्यासी को सूत्र मिल गया जो खाली होता है, उसमें राम होता है। यानी मुझे भी अपने आप को खाली करना है अर्थात सरल बनना है क्योंकि सरल जनों की गति भी सरल होती है और वक्रजनों की गति वक्र होती है। अत:अच्छी गति के लिए हमें मन,वचन और काया की वक्रता का त्याग करना चाहिए। अष्टावक्र जी जिनका शरीर बाहर से आठ प्रकार से टेढ़ा-मेढ़ा था, मगर मन से अत्यंत सरल साधक थे।उन्होंने अष्टावक्र गीता की रचना की। अतः बाहर का टेड़ापन फिर भी ज्यादा नुकसान करें या नहीं करें, मन का टेड़ापन अत्यंत नुकसानकारी होता है। इसलिए कहा है कि तुम जैसे नहीं हो वैसे दिखाने का प्रयास मत करना।साधु के लिए कहा है कि चाहे दिन हो या रात हो, अकेला हो या परिषद में हो, सोता हुआ हो या जागृत अवस्था में हो, सदा मन, वचन और काया से एकरूपता में रहे। रत्नाकर पच्चीसी में आया है कि दूसरों को ठगने के लिए वैराग्य धारण किया।लोगों के मनोरंजन के लिए धर्म का उपदेश दिया।और साधना दूसरों को ठगने के लिए की। तो याद रखें आप दूसरों को नहीं अपने आप को ही ठग रहे हैं। माया के साइड इफेक्ट है कि, यह संबंधों में दरार पैदा कर देता है। मायावी की सद्गति समाप्त हो जाती है ।माया करने वालों के सदगुण नष्ट हो जाते हैं। एवं उसका सम्मान भी खत्म हो जाता है। क्योंकि लोगों का उस पर से विश्वास उठ जाता है। सब कुछ जानते हुए भी व्यक्ति माया करता है,इसका कारण है कि साधनों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति माया करता है।व्यक्ति सोचता है कि एक नंबर से कार्य करने से तो इतना इकट्ठा नहीं हो पाएगा। दूसरा कारण है सम्मान पाने के लिए, इसके लिए व्यक्ति तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहलाने को तैयार हो जाता है। अपना झूठा सम्मान भी करा लेता है। तीसरा कारण अपने कार्य की सिद्धि के लिए भी व्यक्ति माया करता है।स्वार्थ का पर्दा जब ऊपर आ जाता है तब व्यक्ति गलत करने को भी तैयार हो जाता है।लेकिन माया का परिणाम तो हानिकारक ही होता है। लक्ष्य है सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने का तो परमपिता परमात्मा, गुरु भगवंतो और अपनी आत्मा की साक्षी से इस भव में या पहले के भव में हुए माया संबंधी पापों का मिच्छामी दुकडम देते हुए प्रायश्चित करने का प्रयास करें। अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ रहा तो यत्र तत्र सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा। 15 तारीख से प्रारंभ होने वाले अखंड नवकार मंत्र जाप में अपनी उपस्थिति लिखने हेतु ज्यादा से ज्यादा संख्या हेतु प्रेरणा प्रदान की गई। आज की धर्म सभा में पीह,मसूदा, नागौर आदि क्षेत्रों से श्रद्धालुजनों ने पधारकर दर्शन प्रवचन का लाभ लिया। धर्म सभा को पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने भी संबोधित किया। धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया। पदमचंद जैन

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