आत्म भाव मे रमण करना श्रेयस्कर --- गुरूदेव श्री प्रियदर्शन मुनि

||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 29-AUG-2023 || अजमेर || संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि मानव को अपने स्वभाव में रहने की साधना करनी चाहिए। स्वभाव शब्द स्व प्लस भाव दो शब्दों से मिलकर बना है। एक स्वभाव मन का होता है और एक स्वभाव आत्मा का होता है । मन के विचार ऐसे होते हैं जो हर पल बदलते रहते हैं। मन चंचल होता है ।जैसे बच्चे का स्वभाव होता है कि उसे घर में रहना पसंद नहीं आता, उसे गाड़ी में बैठना और घूमना पसंद आता है। बड़े व्यक्ति घर में टिक जाएंगे मगर बच्चा एक जगह पर ज्यादा देर तक नहीं टिक सकता है ।उसी प्रकार मन का भी एक विषय पर ज्यादा टिकना नहीं हो पता है. समय का कालमान भी 48 मिनट इसलिए बताया कि इससे ज्यादा मन एक विषय पर नहीं टिक पाता है। इतने चंचल मन के भाव होते हैं। मगर दूसरा भाव है आत्मा का भाव, आत्मा का स्वभाव है दया, करुणा ,मैत्री ,परोपकार का, आप स्वयं ही चिंतन करें कि आप मन के भाव में ज्यादा जीते हैं या आत्मा के भाव में ज्यादा जीते हैं ।आत्मा के भावों में जीना स्वभाव कहलाता है और मन के भाव में जीना परभाव कहलाता है। क्रोध, मान ,माया और लोभ यह परभाव है क्योंकि यह हर समय आत्मा के साथ नहीं रहते, जो सदैव साथ रह सके वही स्वभाव होता है। गीता में भी कहा गया है "स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मे भयावह" श्रदेय गुरुवर श्री पन्नालाल जी महारासा ने इसका आशय समझाया कि स्वधर्म का अर्थ यहां है दया से, करुणा से मैत्री से ,परोपकार से इसमें जीना व मरना श्रेयस्कर है। मगर विभाव जो हमारा धर्म नहीं है, क्रोध, मान, माया , लोभ, निंदा ,बुराई इन विभाव की स्थितियां भयानक है ।यह आत्मा का पतन करने वाली है । दसवेकालिक सूत्र में भी राजमती जी ने कहा है कि असंयम में जीवन जीने के बजाय संयम अवस्था में मृत्यु को प्राप्त करना श्रेयकारी है ।तो हम सोचे कि मैं अपने स्वभाव में कितना रहता हूं? तो ज्यादा से ज्यादा प्रयास करें स्वभाव में रहने का, स्वभाव में जीवन जीने का, अपने आप में रहने का ,अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ रह पाया तो यत्र यत्र,सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा ।आज के धर्म सभा में बाहर से श्रद्धालुजन दर्शन वंदन व क्षमायाचना हेतु पधारे। धर्म सभा को पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने भी संबोधित किया । धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेडा ने किया।

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