चलो मुसीबत टल गई -- डा. रमेश अग्रवाल

||PAYAM E RAJASTHAN NEWS|| 15-OCT-2022 || अजमेर || शुक्र है आंधियां रास्ता बदल कर शहर से आगे निकल गईं। कल शाम तक अजमेर के विप्र एवं वैश्य समाज के बीच गलतफहमियों की धूल के जो गुबार चक्रवात बन कर उठ रहे थे , चंद समझदारों की समझदारी के छींटों की बदौलत हवा में घुलने से रह गये।जगन्नाथ मंदिर के पुजारी दिवंगत गोविन्द शर्मा के भाई के पोते भरत को दूसरे पक्ष से, इसी मंदिर में पूजा का अधिकार व पांच लाख रुपये का मुआवजा मिल गया तो कुछ लीडरों की लीडरी को नया जीवन। मगर कुछ सवालों की चिन्दियां जमीं पर यहां वहां अब भी बिखरी रह गई हैं जिन्हें बुहारने की जिम्मेदारी सभी पक्षों की है। सर्वमान्य सत्य है कि जब कानून,व्यवस्था और समाज के जिम्मेदार लोग समय रहते अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते तब ही मामले भीड़ की अदालत में स्थानान्तरित होते हैं। पुजारी और मंदिर प्रबन्धकों के बीच का यह विवाद महिनों पहले पुलिस, अदालत और प्रशासन के पास पहुंच गया था तथा इन सभी को जयपुर के मुरलीपुरा इलाके में लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी गिर्राज शर्मा द्वारा ठीक इन्हीं परिस्थितियों में उठाये गये ऐसे ही कदम की जानकारी भी थी मगर इनमें से किसी नें भी समय रहते कोई कदम नहीं उठाया और इस दुखान्त प्रकरण के लिये मुख्य दोषी भी यही एक रवैया कहा जा सकता है। प्रकरण की पृष्ठभूमि के लिये मन्दिर प्रबन्धन जिम्मेदार था अथवा पुजारी का परिवार इसका फैसला कानून के धरातल पर पुलिस और प्रशासन द्वारा आसानी से लिया जा सकता था मगर फिर एक बार फैसला लिया भीड़ ने। सभी जानते हैं कि भीड़ जब फैसला करती है तो सिर्फ इन्सानों की ही नहीं कानून, संवेदना और न्याय की भी लिंचिंग होती है। पुजारी गोविन्द शर्मा के निधन के बाद एक तरफ ब्राह्मण समाज तो दूसरी तरफ अग्रवाल समाज के यौद्धा मुटिठयां तान कर खड़े दिखाई दिये। पुलिस और प्रशासन भी बस यह इन्तजार करते ही दीखे, कि देखें किस ओर की भीड़, संख्या और आक्रामकता की दृष्टि से भारी पड़ती है।भीड़ के त्वरित न्याय ने इन सवालों पर विचार का अवसर ही नहीं दिया कि मामला एक नियोक्ता व कर्मचारी के बीच का विवाद मात्र था अथवा आस्था और आरती के बीच के भेद का भी। इस बात पर भी विचार जरूरी था कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियां हों आत्महत्या जैसे जघण्य कदम पर विचार न किया जाना आने वाली पीढ़ी के मासूमों को कौनसी राह दिखा सकता है। मगर पुलिस और प्रशासन दोनों को तर्क और तथ्यों के आधार पर सही और गलत का फैसला करने के बजाय बस इस बात की फिक्र थी कि किस तरह यह मुसीबत जल्द से जल्द उनके सिर से टले। उन्हें इतनी तसल्ली है कि फिलहाल मुसीबत टल गई।

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